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उन्होंने खुशी-खुशी खुद को पेश किया​—म्यांमार में

उन्होंने खुशी-खुशी खुद को पेश किया​—म्यांमार में

आज म्यांमार की आबादी करीब साढ़े पाँच करोड़ है, मगर खुशखबरी सुनानेवाले प्रचारकों की गिनती सिर्फ 4,200 है। इससे हमें 2,000 साल पहले कही यीशु की यह बात याद आती है, “कटाई के लिए फसल बहुत है मगर मज़दूर थोड़े हैं। इसलिए खेत के मालिक से बिनती करो कि वह कटाई के लिए और मज़दूर भेजे।”​—लूका 10:2.

“खेत के मालिक” यहोवा ने अलग-अलग देशों के सैकड़ों भाई-बहनों के दिलों को उभारा और वे दक्षिण-पूर्वी एशिया के इस देश में प्रचार करने के लिए आ गए। उन्होंने अपना घर-बार छोड़कर यहाँ आने के लिए अपना मन कैसे बनाया? यहाँ आने के लिए उन्हें क्या-क्या मदद मिली? उन्हें कौन-कौन-सी आशीषें मिलीं? आइए देखें।

“ज़रूर आओ, हमें और पायनियर चाहिए!”

कुछ साल पहले जापान में एक पायनियर काज़ुहीरो को मिरगी का दौरा पड़ा, वह बेहोश हो गया और उसे अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने उसे दो साल तक गाड़ी चलाने से मना किया। काज़ुहीरो बहुत परेशान हो गया। उसने सोचा, ‘अब मैं पायनियर सेवा कैसे करूँगा?’ उसे पायनियर सेवा बहुत पसंद है। उसने यहोवा से प्रार्थना की कि वह उसके लिए कोई-न-कोई रास्ता निकाले, ताकि वह पायनियर सेवा करता रहे।

काज़ुहीरो और मारि

काज़ुहीरो बताता है, “एक महीने बाद मेरे एक दोस्त को मेरे बारे में पता चला। वह म्यांमार में सेवा कर रहा था। उसने मुझे फोन किया और कहा, ‘म्यांमार में ज़्यादातर लोग बस से सफर करते हैं। अगर तुम यहाँ आओ, तो तुम बिना कार के भी अपनी पायनियर सेवा कर पाओगे।’ मैंने अपने डॉक्टर से पूछा कि क्या मैं इस हाल में म्यांमार जा सकता हूँ। डॉक्टर की बात सुनकर मैं दंग रह गया। उसने कहा, ‘म्यांमार से एक डॉक्टर जापान आया हुआ है। मैं तुम्हें उससे मिला दूँगा। अगर तुम्हें वहाँ कभी मिरगी का दौरा पड़ा, तो वह तुम्हें सँभाल लेगा।’ इस बात से मुझे ऐसा लगा, जैसे यहोवा ने मेरी प्रार्थना सुन ली।”

फौरन ही काज़ुहीरो ने म्यांमार के शाखा दफ्तर को एक ई-मेल लिखा कि वह अपनी पत्नी के साथ उस देश में पायनियर के तौर पर सेवा करना चाहता है। पाँच दिनों के अंदर ही शाखा दफ्तर ने जवाब दिया, “ज़रूर आओ, हमें और पायनियर चाहिए!” काज़ुहीरो और उसकी पत्नी मारि ने अपनी गाड़ियाँ बेच दीं, म्यांमार जाने के लिए वीज़ा बनवाया और प्लेन की टिकटें खरीद लीं। आज वे मांडले में साइन लैंग्वेज समूह के साथ खुशी से सेवा कर रहे हैं। काज़ुहीरो कहता है, “इस पूरी घटना से भजन 37:5 में किए परमेश्‍वर के वादे पर हमारा भरोसा और बढ़ता है, ‘अपना सबकुछ यहोवा पर छोड़ दे, उस पर भरोसा रख, वह तेरी खातिर कदम उठाएगा।’”

यहोवा मदद करता है

सन्‌ 2014 में म्यांमार के यहोवा के साक्षियों को एक खास अधिवेशन की मेज़बानी करने का मौका मिला। विदेश से कई भाई-बहन आए। अमरीका से मोनीक भी आयी, जो 34 साल की थी। वह कहती है, “अधिवेशन से लौटने के बाद मैंने यहोवा से प्रार्थना की कि अब मैं आगे क्या करूँ। मैंने अपने मम्मी-पापा से भी इस बारे में बात की। हम सबको लगा कि यहोवा की सेवा करने के लिए म्यांमार एक अच्छी जगह है, मुझे वहाँ जाना चाहिए। लेकिन मुझे यह फैसला करने में काफी वक्‍त लगा और मैंने बहुत प्रार्थना भी की।” मोनीक को यह फैसला करने में इतना वक्‍त क्यों लगा?

मोनीक और ली

वह कहती है, ‘यीशु ने अपने चेलों से कोई भी काम शुरू करने से पहले उसके “खर्च का हिसाब लगाने” के लिए कहा था। इस वजह से मैंने खुद से पूछा, “क्या मेरे पास म्यांमार जाने के लिए पैसा है? क्या मुझे उस देश में गुज़ारा चलाने के लिए ऐसी नौकरी मिल सकती है, जिसमें मेरा ज़्यादा वक्‍त न जाए?” मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं दुनिया के एक कोने से उठकर दूसरे कोने में चले जाऊँ।’ फिर सवाल उठता है कि वह म्यांमार कैसे गयी?​—लूका 14:28.

मोनीक बताती है, “एक दिन मेरी मालकिन ने मुझे बुलाया। मैं बहुत घबरा गयी और सोचने लगी कि आज तो मेरी नौकरी गयी। लेकिन मालकिन ने मेरी तारीफ की कि मैं अच्छा काम करती हूँ। इतना ही नहीं, उसने मुझे बोनस भी दिया। इस बोनस की रकम ठीक उतनी ही थी, जितना मुझे अपना कर्ज़ चुकाने के लिए चाहिए था!”

दिसंबर 2014 से मोनीक म्यांमार में सेवा कर रही है। वहाँ सेवा करने में मोनीक को कैसा लगता है? वह कहती है, “मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ। मैं तीन बाइबल अध्ययन कराती हूँ। मेरी एक विद्यार्थी 67 साल की है। जब भी हम मिलते हैं, तो वह एक प्यारी-सी मुस्कान देकर मुझे गले लगाती है। जब उसने जाना कि परमेश्‍वर का नाम यहोवा है, तो उसकी आँखें भर आयीं। उसने कहा, ‘मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार यह बात सुनी कि परमेश्‍वर का नाम यहोवा है। तुम मुझसे बहुत छोटी हो, फिर भी तुमने मुझे सबसे अहम बात सिखायी, जो मैं अब तक नहीं जानती थी।’ यह सुनकर मेरी भी आँखें भर आयीं। जब इस तरह के अनुभव होते हैं, तो ज़्यादा ज़रूरतवाली जगहों में जाकर सेवा करने में बहुत खुशी और संतुष्टि मिलती है।” हाल ही में मोनीक को ‘राज प्रचारकों के लिए स्कूल’ में जाने का मौका मिला।

2013 यहोवा के साक्षियों की सालाना किताब (अँग्रेज़ी) में म्यांमार के बारे में बहुत कुछ बताया गया था, जिसे पढ़कर भी कुछ लोगों ने म्यांमार आने के बारे में सोचा। करीब 30 साल की एक बहन ली पहले दक्षिण-पूर्वी एशिया में रहती थी। वह वहाँ नौकरी करती थी, लेकिन सालाना किताब पढ़ने के बाद उसने सोचा कि वह भी म्यांमार जाकर सेवा करेगी। वह कहती है, “सन्‌ 2014 में जब मैं यांगून में खास अधिवेशन के लिए गयी, तो वहाँ एक पति-पत्नी से मिली, जो म्यांमार में चीनी भाषा बोलनेवाले इलाके में सेवा करते थे। मेरी भाषा भी चीनी है, इसलिए मैंने फैसला किया कि मैं म्यांमार जाकर चीनी भाषा बोलनेवाले समूह के साथ सेवा करूँगी। यहाँ आने पर मोनीक मेरी साथी बनी और हम दोनों मांडले चले गए। यहोवा की मदद से हम दोनों को एक ही स्कूल में नौकरी मिल गयी, जहाँ हमें कुछ ही घंटे पढ़ाना होता है। हमें वहीं पास में एक घर भी मिल गया। यहाँ का मौसम गरम है और कुछ सुविधाएँ भी नहीं हैं, इसके बावजूद मुझे यहाँ सेवा करने में बहुत खुशी मिलती है। म्यांमार के लोग सादा जीवन जीते हैं, अदब से पेश आते हैं और खुशखबरी सुनने के लिए वक्‍त देते हैं। जिस तरह यहाँ यहोवा प्रचार काम को आगे बढ़ा रहा है, यह देखकर मेरा दिल उत्साह से भर जाता है। मुझे पूरा यकीन है कि यहोवा चाहता है कि मैं मांडले में रहूँ।”

यहोवा प्रार्थना सुनता है

ज़्यादा ज़रूरतवाली जगहों में जाकर सेवा करनेवालों ने महसूस किया है कि यहोवा ने उनकी हर प्रार्थना सुनी है। उदाहरण के लिए, जुम्पे (37 साल) और उसकी पत्नी नाओ (35 साल) पहले जापान में एक साइन लैंग्वेज मंडली में सेवा करते थे। बाद में वे म्यांमार चले गए। जुम्पे बताता है, “हम दोनों की पहले से इच्छा थी कि हम एक ऐसे देश में जाकर सेवा करें, जहाँ ज़्यादा ज़रूरत है। हमारी साइन लैंग्वेज मंडली का एक भाई म्यांमार चला गया। मई 2010 में हम भी म्यांमार चले गए, जबकि हमने जो पैसे जमा किए थे, वे ज़्यादा नहीं थे। वहाँ पर भाई-बहनों ने हमारा दिल से स्वागत किया।” जुम्पे और नाओ म्यांमार में साइन लैंग्वेज के इलाके में प्रचार करते हैं। वहाँ उन्हें कैसा लगता है? जुम्पे बताता है, “यहाँ के बधिर लोगों को यहोवा के बारे में जानना बहुत अच्छा लगता है। जब हम उन्हें साइन लैंग्वेज के वीडियो दिखाते हैं, तो वे हैरान रह जाते हैं। हमें बहुत खुशी है कि हमने यहाँ आकर सेवा करने का फैसला किया!”

नाओ और जुम्पे

जुम्पे और नाओ का गुज़ारा कैसे हुआ? जुम्पे बताता है, “तीन साल के दौरान हमारा गुज़ारा जमा किए गए पैसे से हो गया। मगर इसके बाद हमारे पास इतना पैसा नहीं बचा था कि हम अपने घर का अगले साल का किराया दे सकें। हमने यहोवा से बहुत प्रार्थना की। अचानक हमें शाखा दफ्तर से चिट्ठी आयी कि वे हमें अस्थायी खास पायनियर बनाना चाहते हैं। हमें यहोवा पर भरोसा था कि वह हमारा साथ नहीं छोड़ेगा और वही हमने अनुभव किया। वह हमारी हर तरह से देखभाल करता है।” हाल ही में जुम्पे और नाओ ‘राज प्रचारकों के लिए स्कूल’ भी गए।

यहोवा लोगों को उभारता है

सीमोने और उसकी पत्नी आना म्यांमार आए। सीमोने 43 साल का है और इटली से है और आना 37 साल की है और न्यूज़ीलैंड से है। उनके मन में म्यांमार में सेवा करने की इच्छा कैसे जागी? आना कहती है, “2013 की सालाना किताब की वजह से।” सीमोने बताता है, “म्यांमार में सेवा करना बहुत अच्छा है। यहाँ पर जीवन सादा है, इसलिए मैं यहोवा की सेवा के लिए ज़्यादा वक्‍त दे पाता हूँ। जब हम ऐसी जगह जाकर सेवा करते हैं, जहाँ ज़्यादा ज़रूरत है और देखते हैं कि यहोवा किस तरह हमारा खयाल रखता है, तो यह एहसास बहुत अनोखा होता है।” (भज. 121:5) आना कहती है, “मैं पहले से कहीं ज़्यादा खुश हूँ, क्योंकि हमारा जीवन सादा होने की वजह से अब हम एक-दूसरे के साथ काफी वक्‍त बिताते हैं और एक-दूसरे के ज़्यादा करीब आ गए हैं। हमें नए दोस्त मिले हैं, जो बहुत प्यारे हैं। यहाँ पर लोग साक्षियों के बारे में पहले से कोई राय नहीं रखते। वे बड़ी दिलचस्पी से खुशखबरी सुनते हैं।”

सीमोने और आना

आना बताती है, “एक दिन मैंने बाज़ार में विश्‍वविद्यालय के एक विद्यार्थी को खुशखबरी सुनायी और उससे दोबारा मिलने का दिन तय किया। जब मैं गयी, तो उसके साथ उसकी एक दोस्त थी। अगली बार वह अपनी कुछ और दोस्तों को ले आयी। उसके बाद वह और भी दोस्तों को ले आयी। अब मैं उनमें से पाँच लड़कियों के साथ अध्ययन करती हूँ।” सीमोने कहता है, “यहाँ लोग बहुत प्यार से मिलते हैं और जानना चाहते हैं कि हम क्या बताने आए हैं। बहुत-से लोगों को खुशखबरी में दिलचस्पी है, लेकिन हमारे पास इतना वक्‍त नहीं है कि हम सबके पास जा सकें।”

साचीओ और मीज़ुहो

म्यांमार जाने का पक्का फैसला करने से पहले कुछ भाई-बहनों ने क्या किया? जापान की एक बहन मीज़ूहो बताती है, “मैं और मेरे पति साचीओ हमेशा से ऐसे देश में सेवा करना चाहते थे, जहाँ ज़रूरत ज़्यादा है। लेकिन हमें समझ में नहीं आ रहा था कि हम कहाँ जाएँ। हमने 2013 की सालाना किताब में म्यांमार के बारे में पढ़ा। भाई-बहनों के अनुभवों का हम पर इतना असर हुआ कि हम म्यांमार जाकर सेवा करने के बारे में सोचने लगे।” साचीओ कहता है, “हमने तय किया कि हम एक हफ्ते के लिए म्यांमार के मुख्य शहर यांगून जाएँ, ताकि हम उस देश के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर सकें। इस एक हफ्ते के दौरान हमें जो भी जानकारी मिली, उससे हमें यकीन हुआ कि हमें वहाँ जाना चाहिए।”

क्या आप बुलाने पर जाएँगे?

जेन, दानिका, रॉडनी और जॉर्डन

रॉडनी और जेन ऑस्ट्रेलिया से हैं और उनकी उम्र करीब 50 की है। वे अपने बेटे जॉर्डन और बेटी दानिका के साथ 2010 में म्यांमार चले आए। रॉडनी कहता है, “यह देखकर हमें बहुत अच्छा लगा कि यहाँ पर लोग परमेश्‍वर के बारे में जानना चाहते हैं। मैं हर परिवार से कहूँगा कि वह म्यांमार जैसी जगहों पर जाकर ज़रूर सेवा करे।” वह ऐसा क्यों कहता है? वह बताता है, “इस तरह सेवा करने की वजह से हमारे परिवार का यहोवा के साथ जो रिश्‍ता बना है, वह अनमोल है। जहाँ आज के जवान फोन पर, गाड़ियों में, नौकरियों में और दूसरी कई चीज़ों में लगे रहते हैं, वहीं हमारे बच्चे प्रचार काम के लिए नए-नए शब्द सीखने में लगे रहते हैं। वे यह सीखने की कोशिश करते हैं कि जो लोग बाइबल के बारे में नहीं जानते, उन्हें उस बारे में कैसे समझाएँ। वे सभाओं में जवाब देने की तैयारी करते हैं और उपासना से जुड़े दूसरे कामों में लगे रहते हैं।”

ऑलिवर और आना

अमरीका का एक भाई ऑलिवर, जो 37 साल का है, समझाता है कि इस तरह की सेवा क्यों करनी चाहिए। वह बताता है, “एक अलग जगह पर और एक अलग माहौल में यहोवा की सेवा करने के कई फायदे हैं। घर से दूर जाकर सेवा करने से यहोवा पर मेरा भरोसा बढ़ा है, फिर चाहे वहाँ हालात कैसे भी क्यों न हो। मैंने ऐसे भाई-बहनों के साथ काम किया, जिन्हें मैं पहले नहीं जानता था, लेकिन हम सब एक ही तरह की शिक्षाएँ मानते हैं। इस तरह सेवा करने से मुझे यह भी यकीन हुआ कि इस दुनिया में परमेश्‍वर के राज से बढ़कर कुछ नहीं है।” आज ऑलिवर और उसकी पत्नी आना म्यांमार में चीनी भाषा बोलनेवाले लोगों को बड़े जोश से प्रचार करते हैं।

ट्रेज़ल

ऑस्ट्रेलिया की ट्रेज़ल नाम की बहन, जो 52 साल की है, 2004 से म्यांमार में सेवा कर रही है। वह कहती है, “जिनके हालात अच्छे हैं, उनसे मैं यह ज़रूर कहूँगी कि वे ऐसी जगह जाकर सेवा करें, जहाँ ज़्यादा ज़रूरत है। मैंने अपने अनुभव से यह जाना है कि अगर आपमें यहोवा की सेवा करने की इच्छा है, तो वह आपकी ज़रूर मदद करेगा। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इस तरह सेवा कर पाऊँगी। इससे बहुत संतुष्टि मिलती है। ऐसी ज़िंदगी सबसे अच्छी है!”

इन भाई-बहनों ने अपने दिल से जो बातें कही हैं, उनके बारे में गहराई से सोचिए। आपको भी इस बात का बढ़ावा मिलेगा कि आप ऐसी जगह जाकर नम्र दिलवालों की मदद करें, जहाँ अब तक प्रचार नहीं हुआ है। ज़्यादा ज़रूरतवाली जगहों पर सेवा करनेवाले आपको बुला रहे हैं, “इस पार म्यांमार आकर हमारी मदद कीजिए!”